Friday 31 July 2009

फिर क्यूँ तुमने की ठिठोली ? (कविता)


मैंने कब कहा तुम मुझे ,,,,
अपने समानान्तर खड़ा करो दो,,,
मेरा जीवन खुशियों से भर दो .,,,,
आरक्षण की बोली भी ,,,,
मैंने नहीं बोली ,,,,,
फिर क्यूँ तुमने की ठिठोली ?
जाति और उपजाति के नाम पर,,,
आरक्षण देकर ,,,,
शायद इससे तुम्हारी राज नैतिक रोटियाँ,,
सिकती है,,,,
इन मुद्दों से ही तो राजनीति की गोटियाँ ,,,
बिछती है ,,,,
नहीं आबश्यकता मुझे अनुदानों की ,,,
नहीं आबश्यकता मुझे सम्मानों की ,,,
जनतंत्र गणतंत्र प्रजातंत्र ,,,,
का अर्थ मैं नहीं जानता,,,
और ना ही मांगी मैंने कभी ,,,
राहत राशि या राहत सामग्री ,,,
मुझे तो बर्षा चाहिए,,,
जो कि अब नहीं होगी,,,,
अब तुम चाहे सूखा ग्रस्त घोषित करो,,,
या फिर अकाल ग्रस्त ,,,,
अब चाहे तुम खुद के बजट के पैसे खाओ ,,,
या फिर केंद्र कि राहत भी उड़ा जाओ ,,,,
मुझे तो विपन्नता में ही जीना है ,,,
पानी नहीं आसूं ही पीना है,,,
मुझे मालुम है इस बार ,,,
मुन्ने के लिए जूते नहीं ला सकूँगा ,,,
बाबू का कुर्ता भी नहीं सिलबा सकूँगा ,,,
कहाँ से आएगी मुन्ना कि मां के लिए ,,,
चौडी किनारे वाली साड़ी ,,,
और विजुरिया का गौना भी तो नहीं हो पायेगा ,,,
क्यों कि इस बार धान नहीं होगा ,,,
फिर भी मुद्रा स्फीति कि दर बढेगी ,,,
सरकार प्रगति और प्रगति करेगी ,,,.
और खूब अनुदान बांटेगी,,,
सूखा आपदा राहत के नाम पर,,,
भले ही अखबारों में ही ,,,,
क्यों कि उसे वोट जो चाहिए ,,,
हो सकता है इस बार पड़ जाए ,,,
खाने के भी लाले,,,
पर मैं हार नहीं मानूगा,,,,
खून और किडनी भी नहीं बेचूंगा ,,,,
भले ही शहर कि झुग्गियों में रहना पड़े ,,,,
रह लूँगा ,,,,
जिल्लत और बदहाली में जीना पड़े,,,,,
तो जी लूँगा,,,
क्यों कि पेट जो भरना है ,,,,
कभी स्वेच्छा से आन्दोलन और प्रतिवाद ,,,
भी नहीं करूँगा,,,
यूँ जीते हुए भी तिल तिल मरूँगा ,,,,
क्यों कि यही तो,,,,,
मेरी नियति है,,,

Wednesday 29 July 2009

तुम रथी मुझे अर्थी बना लो ,,,(कविता)


शिकायत करती मेरी अंतरात्मा की आवाज




किस द्वंद में फसा दिया ,,,
किस फंद में गिरा दिया ,,,,
एक बूंद से त्रस्त था ,,,,
सागर में डुबा दिया ,,,,
अब कौतुक कर ,,,
उसे निहरता है ,,,,
ह्रदय पट चीर के,,,,
विहरता है,,,,
अदभुद की कभी ,,,
आकान्क्षा नहीं की,,,,
असीम की कभी ,,,
लालसा नहीं की ,,,
फिर भी ऐसा अबरोध,,
इतना बिरोध ,,,,
क्यूँ इतना क्रोध ,,,,
नहीं है इतना बोध ,,,
क्यूँ कटुता लिए हो ,,,
क्यूँ शत्रु किये हो ,,,,
क्यूँ नहीं निकलने देते,,,

इस अनित्य जग के बंधन से ,,,
क्यूँ मुक्त नहीं होने देते ,,,
इस मय के क्रन्दन से ,,,
क्यूँ नहीं होने देते,,,
गम्य में अगम्य का भान ,,,
अंतस में मय का ज्ञान .....
बंधन तोड़ एकी कार कर दो,,,,
निज का सारथी बना दो ,,,,
तुम रथी मुझे अर्थी बना लो ,,,
किस चक्र में कसा दिया ,,,
किस द्वंद में फसा दिया ,,,
किस फंद में गिरा दिया
,,,,

Monday 27 July 2009

चीत्कार भरी बाणी में धुन कैसे लाऊं ?(कविता)

आखिर ये भी बच्चे है



तुम कहते हो गीतों में,,,
अभिनन्दन दूँ ,,,
बाणी की मृदुल व्यंजना से ,,
वंदन दूँ ,,,,,
क्यों ह्रदय शूलता को,,,
नहीं समझते हो मित्रो ?
क्यों गहन मौनता को ,,
नहीं समझते हो मित्रो ?
जब ह्रदय वेदनाकुल हो ,
फिर गीतों को कैसे गाऊं?
जब चीत्कार भरी हो बाणी में ,,
फिर उसमे धुन कैसे लाऊं ?
जब अंतस में भास्मातुर,,,
ज्वाला हो ,,,,
जब लहू बन चुका क्रोधातुर,,
हाला हो ,,,
जब आँखों से केवल ,,
लपटे निकल रही हो ,,,
जब शब्दों में केवल ,,,
डपटे निकल रही हो ...
ऐसे जंगी मौसम में मैं ,,,
प्रेमातुर गीत नहीं गा सकता ,,,
इन युद्घ गर्जनाओं में मैं ,,,,
संगीत नहीं ला सकता ,,,
जब पीड़ित जन के आंसू ,,
मेरी बाणी का संबाद बने हो ,,
जब मेरे जीवन जीने का ,,
स्तम्भन भी अवसाद बने हो ,,,
जब शब्दों में दुखियारों का,,,
रुदन गूंजता हो ,,,,,
जब आँखों में बेचारों का,,,
सदन घूमता हो ,,,,
तब मैं प्रेमी पथ का ,,,
पथगामी कैसे बन जाऊं ,,,
तब मैं मानो मनुहारों का ,,,,
अनुगामी कैसे बन जाऊं ,,,
मैं कविता नहीं सुनाता ,,,
उनके आंसू रोता हूँ ,,,
वो पीते है जिनको पल पल,,,
मैं वो आंसू खोता हूँ ,,,,
घुट घुट जीते धरती पुत्रो की,,,
मैंने तंगी देखी है,,,
रोटी की गिनती करती ,,
तस्वीरे नंगी देखी है ,,,,
बचपन में बूढे होते बच्चो की ,,,
तकदीरे अधरंगी देखी है ,,,,
अब शब्द शब्द संजालो से ,,,
भर गीत कहाँ से लाऊं ,,,
जब ह्रदय वेदनाकुल है ,,,
फिर गीतों को कैसे गाऊं ,,,
अब तो मन करता है इनके रोने में ,,,
अपना क्रन्दन दूँ ,,,,
तब तुम कहते हो गीतों में,,,
अभिनन्दन दूँ,,,,

Friday 24 July 2009

कभी याद आऊ तो केवल दो आँशू टपका देना ,,,(कविता)


माँ अगर चाहती मेरी शादी हो ,,,
रण भूमि की मिटटी से,,
सुन्दर सा घर बनबा देना ,,,
हर कोने पर अरी मुंडो की,,
मालाये लटक रही हो,,
आँगन में संग्रामो की ,,
ज्वालाये धधक रही हो ,,,
गीतों की लय पे माँ तुम ,,
रण भेरी बजवा देना,,,
हर कोने में वीर लड़ाके हो,,
घर को तुम सजवा देना ,,,
मरू भूमि की वेदी हो ,,
बलिदानों की अहुतिया,,,,
बलि वेदी दुल्हन हो और हो,,
बलिदानी चोला ,
श्रंगारी कपड़ो की नहीं जरुरत ,,,
एक कफ़न तुम मँगवा देना ,,,,
माँ सीमा पर मरने वाले सारे मेरे,,
बाराती हो ...
रास्ट्र भूमि की बलिवेदी पर बलि दे जो ,
सो मेरे साथी हो ,,
माँ मेरी अगवानी वही करे,,,,
जिसके बोलो में हो धरती का बोला ,,,
सम्मानों को वही बढे,,,
जिसने पहना हो वीरो का चोला,,,
माँ पंडित की नहीं जरुरत ,,,
कोई वीर बुला देना,,,
शादी मंत्रो की बोली में माँ,,,
जन गण मन तुम गा देना ,,,,
सात पदों की सातो इच्छा ,,
एक ही में ले लूँगा ,,,
मात्र भूमि पे हो निछावर ,,,
सौ सौ जन्म मैं दे दूंगा ,,,
हुंकारों की भाषा में ,,,
माँ शादी गीतों को गाना ,,,
ललकारो की भाषा में ही ,,,
थोरी सी लय लाना ,,,
माँ नहीं पालकी का लालच मुझको ,,,
अर्थी तुम मँगवा देना ,,,
हर कोने पर माँ वीरो को लगवा देना ,,,
चन्दन श्रंगारो का आलेप नहीं,,
थोरी मिटटी मलवा देना ,,,
माँ गंगा जल नहीं चाहिए ,,,
दो आंशू तुम ला देना ,,,
मुझको अग्नि वही लगाये ,,
जो वीरो की टोली से हो ,,,
अग्नि प्रज्वल्लित भी माँ केवल,,,
वीरो की गोली से हो,,,
म्रत्यु पाठ भी वही करे,,
जिसकी बोली में हुंकारे हो ,,,
म्रत्यु पाठ के गीतों में ,,,
माँ केवल ललकारे हो ,,,
नहीं प्रवाहित करना अस्थि को ,,
गंगा या यमुना जल में ,,,
वीर गुजरते हो जिस पथ से ,,,
बिखरा देना उस थल में ,,,
माँ कभी विलापो की बोली में ,,,
ना मुझको तुम ला देना ,,,,
कभी याद आऊ तो केवल ,,
दो आँशू टपका देना ,,,
माँ एक प्राथना और करूँगा ,,,
तेरा हर बेटा उन्मादी हो ,,,
रास्ट्र भूमि पर बलि बलि जाए ,,
ऐसी ही उसकी शादी हो ,,,
माँ अगर चाहती मेरी शादी हो ,,,,,

Wednesday 22 July 2009

दानो की भाषा में अब और दिलासा नहीं चाहिए ||,,(कविता)


चाचा मामा ताऊ अंकल हो चाची ताई आंटी ,,

रिस्तो की यैसी परिभाषा नहीं चाहिए ,,

विद्यालय स्कूल बने विद्या एजूकेशन ,,,
पावन शब्दों में येसी भाषा नहीं चाहिए ,,,
लेड उगल दे धरती और सांसो में co2 हो ,,

प्रगति की यैसी आशा नहीं चाहिए ,,,,

हर सर को छत और हर हाथो को काम मिले ,,

दानो की भाषा में अब और दिलासा नहीं चाहिए ,,

संस्क्रति की हो चिंदी चिंदी और सभ्यता को गाली ,,

परिवर्तन की आडो में अब और कुहासा नहीं चाहिए ,,

संग्रामो की गाथा हो और हो इंसानों को खतरा ,,,

एटम परमाणु की अभिलाषा नहीं चाहिए ,,

गौरव हो पानी पानी हो सम्मानों में अपमान ,,,

पॉप और राक का खूब हुलासा नहीं चाहिए ,,,

कौन मांगता फूलो की तुम आहुति दो ,,,,

पर नंगे पन का और जवासा नहीं चाहिए ,,,

क्यों समलिंगता सम्मभोगो की हो लम्बी बहसे ,,,

बर्षो से जो छुपा खुलासा नहीं चाहिए ,,,

मानूँगा गा परिवर्तन और उत्थानो का सम्मान करूँगा ,,
पर निज गौरव हो दवा दवा सा नहीं चाहिए ,,,,

Sunday 19 July 2009

वो नुक्कड़ पर बैठी अबला (कविता)


हमारे समाज में कितनी विसंगतिया है---- कही पर कुछ है और कही पर कुछ ---हमारे समाज में भी यैसे लोग है यह देख कर हर्दय घर्णा से भर जाता है ---माँ वो शब्द है पदवी है निधि है जिसका इस दुनिया में कोई मूल्य नहीं अमूल्य है -----पर उसके साथ भी ऐसा सलूक करते है लोग ----, ये कविता मैंने एक ऐसी ब्र्द्धा स्त्री पर लिखी है------ जिसके चार चार लड़के होते हए भी वो बेघर और बेसहारा है---- कोई भी लड़का उसे घर में रखने को तैयार नहीं,, वो चांदनी चौक के शानिमंदिर वाली गली के बाहर नुक्कड़ पर पटिया पर बैठी रहती है ----वही उसका घर है और जो लोग उसे दया करके खाने को दे देते है उसी से अपना पेट भरती है--- अर्ध विक्षिप्ता सी हो गयी है -----आँखे भर जाती है और आँशू अपने आप बहने लगते है ----फिर चाहें कविता के रूप में ही क्यूँ न हो ,,
वो नुक्कड़ पर बैठी अबला ,,
आभारो की भाषा कहती है ,,,
हर आने जाने वालो को ,,..
उत्सुक ताकती रहती है ,,,
कर्मो की परिभाषा का ,,,
शायद उसको ज्ञान नहीं ,,,
स्रष्टि की अभिलाषा का ,,,
शायद उसको संज्ञान नहीं ,,,
हुयी बुजुर्गा तो बैठा दी ,,,
लाकर इस नुक्कड़ पर,,,
रही स्वामिनी जिस घर की ,,
एक पल में छूटा वो घर ,,,
चेहरे की झुर्री दर्दो की ,,,
बोली बोल रही है ,,,,,
उसकी ये दयनीय दशा ,,,,
जीवन की सच्चाई खोल रही है ,,,,
टुकड़े खा ,टुकडो को पाला,,,,
अब टुकडो पर जीती है ,,,,
देना देना और बस देना ...
क्या माँ की ये ही रीती है ,,,,
मरणासन्न पड़ी है , मरने को है ,,
पर जाने क्यूँ सांसो को अबरोध दिए ,,
रोज ताकती है पथ को ,,,,
आशा की एक किरण लिए,,,,
शायद मिल जाये वो टुकड़े ,,,
जो टुकड़े थे खुद के किये ,,,
क्या उसकी ममता का ,,,
परिणाम यही होगा ,,,,
लहू से पाला पोषा जिनको ,,,,
क्या उनको ध्यान नहीं होगा ,,,
प्रश्न पूछती आँखे उसकी ,,,
पर आशा रहती है,,,,
वो नुक्कड़ पर बैठी अबला ,,
आभारो की भाषा कहती है

Thursday 16 July 2009

हे मदिरा देवी कितना कलुषित है है तेरा हास (कविता)


उठता है गिरता है ,,,,
फिर लेता है करुना मिश्रित साँस,,
हे मदिरा देवी कितना कलुषित है है तेरा हास ,,,
अंतस से अंतस में कुंठित होता है ,,
चेतन मन का चेतन खोता है ,,
पल पल अपनी गाथा गाता ,,
तेरे मद में डूबा जाता ,,,
पल पल उसका भीषक होता ,,,
फिर भी न धारिता खोता ,,,
लाखो चुम्बन देता इस अबनी को ,,
निज कदमो की घबराहट से ,,
मानो प्रेमी आलिंगन करता हो निज सजनी को ,,
सब भाव शून्य सब ज्ञान शून्य ,,,
अपनी मस्ती में मस्त अहो ,,
अपना खो कर के जो झूमे,,
है येसा ज्ञानी कौन कहो ,,,
सव सौन्दर्य विलाशित जीवन को ,,
दे दी है उसने तिलांजलि ,,,
इस माया माय स्रष्टि से हट कर के ,,
ले ली है मधु की एक अन्जली ,,
भाता है उसको अपना जीना ,,
गर्वित है उसका सीना ,,
कर्तव्य परायण हे रसिक प्रिये ,,
फिरते हो कैसा व्रत कठिन लिए ,,
सब साम्राज्य तुम्हें त्रण तिनका है ,,,
उन्हें समर्पित वह जिनका है ,,,
करता है श्रम नित दिन वासर ,,
लेता न कभी विश्राम अहो ,,,,
अपना खोकर के जो झूमे ,,येसा ज्ञानी कौन कहो ,,

Tuesday 14 July 2009

हूँ कारगिल का बलिदान सुनो,,(कविता}


आज मेरा जन्म दिन है अपने जन्म दिन के उपलक्ष में मैं ये कविता आप लोगो के सामने रख रहा हूँ हमारे यहाँ जन्म दिन पर पुत्र अपनी माँ को कोई भेट देता है तो मैं भेट स्वरूप अपनी यह कविता अपनी तीनो मांओमेरी जन्मदेने बाली माँ मनोरमा माननीय निर्मला जी और भारत माँ को समर्पित कर रहा हूँ इस कविता में मैंने अपने आप को प्रदर्शित करने का प्रयाश किया है और अपने आप को भारत माँ के कण कण से जोड़ने का भी मैं कहाँ तक सफल रहा ये तो आप की प्रतिक्रिया ही बताएगी


मैं आज चाहता हूँ देना परिचय,,
हूँ भारत माँ का सम्मान सुनो,,
मैं रास्ट्र भक्ति की बोली हूँ ,,,,
हूँ झंडे का मान सुनो ,,,
मैं परिवर्तन की भाषा हूँ ,,
अंगारों भरी जुबान सुनो ...
मैं बोली हूँ हुंकारों की ,,,
चीख नहीं ललकार सुनो ,,,
मैं हूँ शोणित वीरो का ,,,
और गीता का भी ज्ञान सुनो ,,,
निर्बल का मैं संबल हूँ ,,
रोतो की मुस्कान सुनो ,,
मैं आज चाहता हूँ देना परिचय,,
हूँ भारत माँ का सम्मान सुनो,,
मैं रास्ट्र भक्ति की बोली हूँ ,,,,
हूँ झंडे का मान सुनो ,,,
मैं गोबर लिपा गलियारा हूँ ,,,
हूँ कच्चा जुडा मकान सुनो ,,
दिन की घनी दुपहरी हूँ ,,,
मैं खेत में जुता किसान सुनो,,
मैं हल के मुठ्ठे की छोटे हूँ ,,,
हूँ बैलो के बंधान सुनो ,,,
मैं जौ बाजरे की रोटी हूँ ,,
हूँ फुलवारी धान सुनो ,,,
मैं आज चाहता हूँ देना परिचय,,
हूँ भारत माँ का सम्मान सुनो,,
मैं रास्ट्र भक्ति की बोली हूँ ,,,,
हूँ झंडे का मान सुनो ,,,
मैं मंदिर का बजता घंटा हूँ ,,
हूँ मस्जिद की अजान सुनो ,,,
मैं चौपाई हूँ रामायण की ,,
हूँ पवित्र कुरान सुनो ,,,,
मैं हिन्दू मुस्लिम दंगे में पिसता,,
हूँ निर्बल इंसान सुनो ,,,
मैं वाणी हूँ रहीम की ,,
हूँ तुलसी का ज्ञान सुनो ,,,
मैं आज चाहता हूँ देना परिचय,,
हूँ भारत माँ का सम्मान सुनो,,
मैं रास्ट्र भक्ति की बोली हूँ ,,,,
हूँ झंडे का मान सुनो ,,,
मैं दुर्घटना लाल बाग़ की ,,
हूँ कारगिल का बलिदान सुनो,,
मैं लुटा सिन्दूर अबलाओं का ,,
हूँ त्रासदी भरा बखान सुनो ,,,
उस माँ का इकलौता बेटा हूँ ,,,
इस धरती माँ पे संधान सुनो ,,
रो रो कर पत्थर होती आंखे हूँ ,,
जिन्दा होकर हूँ बेजान सुनो ,,,
मैं आज चाहता हूँ देना परिचय,,
हूँ भारत माँ का सम्मान सुनो,,
मैं रास्ट्र भक्ति की बोली हूँ ,,,,
हूँ झंडे का मान सुनो ,,,

Sunday 12 July 2009

पति की पद बंध्या भारतीय नारी है(कविता)


स्त्रियों की दशा और उनकी स्तिथि पर ना जाने कितना लिखा और किया गया पर क्या उनकी स्तिथि सुधरी है मुझे तो नहीं लगता की उसमे जरा भी सुधार हुआ है ,, महिला अरक्षन की बात करते है इसमें महिलायों का हित कम अपनी राजनैतिक और आर्थिक मह्तात्ता ज्यादा होती है कहते है महिलाये हर क्षेत्र में है मानता हूँ हर क्षेत्र में है पर कितनी क्या वे उन पिछडी महिलायों की बात कर रहे है जिनकी स्तिथि में सुधार की आबश्यकता है मैं नहीं मानता की आम महिलायों की स्थिति में कोई सुधार हुआ है हाँ प्रताड़ना के तरीके और शोषण के तरीके जरुर बदले है पहले किसी और ढंग से प्रताडित और शोषित अब किसी और ढंग से पर क्रम रुका नहीं है अगर रुका होता तो येसी घटनाये नहीं होती जो आज भी आम है कुछ अखबारों में आती है कुछ खो जाती है ऐसी ही एक महिला की घटना मेरे भी दो आंशू उसे सत्वब्ना के रूप में



यह महिला सशक्तिकरण की बात ,,
करने वालों के गाल पर तमाचा है ,,
महिलायों के नाम पर सिक रही ,,
राजनैतिक रोटियों की जली हुई बू है ,,,
उत्पीडन और प्रताड़ना ,,,
झेलती एक आवाज है ,,
समाज से किया गया ,,
प्रश्नातुर सम्बाद है ,,,
प्रगति की खाल के नीचे,,
सडन मारता झूठी परंपरा का घाव है ,,
ये संसद के गलियारों में,,,
आरक्षण के लिए चीखती ,,
राजनितिक सत्ता नहीं है ,,
टीवी पर न्यूज़ पढ़ती और ,,
फिल्मो में नाचती सुन्दरता भी नहीं है ,,
ये डिस्को में रंगिनिया मनाती ,,
उन्मुक्तता भी नहीं है ,,
न ही ये जुलूश निकालती ,,
हक़ मागती शक्ति ही है ,,
ये निश्छल ममत्व भरी माँ है ,,,
स्नेह और त्याग भरी बहन है ,,
असीम पीडा और दर्द समेटे पत्नी भी है ,,,
और अनेको रिश्तो के जाल में ,,
घिरी उन्हें संयोजित करती एक स्त्री भी ,,
पर सबसे अलग ये असह त्रासदी झेलती ,,

पति की पद बंध्या भारतीय नारी है ,,,,

Saturday 4 July 2009

ओस असीम को असीम से सेता हूँ ,,,, (कविता)


नव बैभव फैला डाली डाली,,
ओस की बुँदे ,,
तिनको की कोरे ,,
कुंठित भौरे ,,
दुखिता का राग ,,
मधु की चाहत ,,
मधु का पाना ,,
मधु से लेना वैराग ,,
करना निज मधु पे त्याग ,,
निज निजता का भान ,,
व्यर्थता ,,,
सुख वा मान ,,,
जीवन की थोड़ी दुखिता ,,
इस कलुषित से विमुखता ,,
उस दिव्य की ओर का एक पल ,,
उस नव्य की हर्दय में हलचल,,
देती है कैसी मीठी उमंग ,,
भरती है नीरस जीवन में रंग ,,
करती दुखिता का रंग भंग ,,
पुलकित होता अंग अंग ,,
जब निज का निज में मिलता रंग ,,
होती अंतस में धीमी जंग ,,
फिर असत्य के खोल में ,,
सत्य को मैं पा लेता हूँ ,,
हार सारी स्रष्टि जंगो को ,,
अंतस पे विजय मैं पा लेता हूँ ,,
तब उस असीम को ,,
असीम से सेता हूँ ,,,,

Friday 3 July 2009

क्या लिखूं ..(कविता)


सोचता हूँ क्या लिखूं .
वतन की वाह में ,,
वतन की वाह में ..
वतन की आह में ..
ऊँची कोठिया लिखूं ,,
या बिकती बेटियाँ लिखूं ,,
मनती पार्टिया लिखूं ,,
या सूखी रोटियाँ लिखूं ,,
उनकी धायिया लिखूं ,,
या माँ की झायिया लिखूं,,
खेत में पड़ी हुई खाईयाँ लिखूं ,,
या बैल संग जुत रही विवायिया लिखूं ,,
किसान की दशा लिखूं ,,
या देश की मनोदशा लिखूं ,,
प्रगति की कथा लिखूं ,,
या दुर्गति की व्यथा लिखूं ,,,
सोचता हूँ क्या लिखूं ,,
वतन की वाह में ,,
वतन की वाह में ,,
वतन की आह में ,,,
उचायियों की होड़ लिखूं ,,
या पश्चिमी अंधी दौड़ लिखूं ,,
वोट की दुकान लिखूं ,,
या जलते मकान लिखूं ,,
उनकी झूठी शान लिखूं ,,
या इन की छिनती मुस्कान लिखूं ,,
चाहो कन्यादान लिखूं ,,,
दहेज़ का विधान लिखूं ,,
जलती बेटियाँ लिखूं ,,
या फिर उड़ती पेटियाँ लिखूं ,,
उनकी तबाहियाँ लिखूं ,,
या इनकी वाह वाहिया लिखूं ,,
और क्या लिखूं ,,
पतन की राह में ,,,
सोचता हूँ क्या लिखूं ,,
वतन की वाह में ,,
वतन की वाह में ,,
वतन की आह में ,,,,